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Friday 4 December 2009

कविता

पिता की मृत्यु  के बाद

माँ बहुत रोती है पिताजी
बेटा  दफ्तर जाते समय
न मिले तो / आंसू
पोता न सुने कहानी
घर में हो ब्याह
या जाया हो नाती
हर मौके बस रोती / माँ

आप जानते हो पिताजी
आपके खाने से पहले
खाती नहीं थी माँ

जब तक आपसे  नहीं कर लेती थी तकरार
कहाँ शुरू होता था उसका दिन
आपका भी कहाँ लगता था मन
जब हो जाती थी नाराज
कितना मनाते थे आप

सुनाकर माँ को / मुझसे कहते थे-
' तेरी माँ का स्वभाव फूल सरीखा है
जो दूसरों को बांटकर सुगंध
बिख़र जाता है ख़ुद '

तब माँ फेर लेती थी पीढ़ा
और आँखों की कौर से
पौछती थी गीलापन

जब से आप गए हो / पिताजी
बैठी रहती है आपकी तस्वीर के आगे
बिना कुछ खाए पिए
काट देती  है सारा  दिन

माँ की आँखों से
हंसी ख़ुशी उदासी की
जो त्रिवेणी बहती है
कभी पलट कर देखो तो सही / पिताजी

पोते को हँसता बोलता देखकर
कभी कभी रोते हुए माँ
कहती है  धीरे से -
' तेरे पिता हंस रहे हैं '

पर आप पहले की तरह
सिर्फ माँ के लिए
कब हंसोगे पिताजी
          *        

27 comments:

  1. मार्मिक रचना पर बहुत सुन्दर!

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  2. जैसा मैंने मेरी माँ को देखा है इन दिनों ठीक वैसी ही कविता और क्या कहूं

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  3. मां शब्‍द ही ऐसा है. दुनिया के सभी शब्‍दकोशों को मिलाकर भी इसके बराबर कुछ हो नही सकता.फूल सा जटिल पर खुशबू सा सरल.
    कविता भी मां का सा स्‍पर्श देती है.

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  4. पद्मजा जी ये शब्द ही अपने आप में पर्याप्त है.कैसे बँट जाती है माँ पति और बच्चों के बीच और फिर भी सामंजस्य भी बनाये रखती है.जितना भी लिखें कम ही पड़ेगा. मन को भिगो गयी ये रचना. मेरे ब्लॉग पर माँ पर एक कविता है पर वो माँ की कुछ अलग ही मनस्थिति दर्शाती है कविता का शीर्षक है "आज भी ".समय मिले तो जरूर पढियेगा
    सादर रचना दीक्षित

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  5. अनुभूति की अमूल्य थाती सँजोकर निकले हैं यह शब्द ! माँ के आँसुओं और पिता की हँसी के बीच ठहर गयी संवेदना ।
    मार्मिक व सुन्दर कविता । आभार ।

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  6. पद्मजा जी !
    जाने क्यों बड़ा भावुक हो चला हूँ ...
    ऐसी कविता की शान में शब्द रखना मौन-संवेदना
    का अपमान सा लगता है ... माँ जिसके सामने ---
    '' पुत्रो कुपुत्रो जातः क्वचिदपि कुमाता न भवति '' की स्थिति हो , वहां शब्द
    कहाँ ठहरेंगे ... मैं माँ से दूर हूँ और सिर्फ यादें आ रही हैं ...

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  7. डा. पदमजा साहिबा,
    'पिताजी और मां' से रिश्तों की पेशकश में,
    बडा ही मर्मस्पर्शी संतुलन बनाया है आपने.
    सच कहें, आंखें नम हो गयीं..
    ये रिश्ते ही ऐसे होते हैं..
    वाकई

    छांव घनेरे पेड सी देकर, धूप दुखों की सहती मां.
    एक समन्दर ममता का है, फिर भी कितनी प्यासी मां..

    अलबत्ता जीवन में पिताजी के महत्व को कौन नकार सकता है?
    उनकी कमी को कौन पूरा कर सकता है?
    शायद कोई नहीं !
    और कभी नहीं !!

    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  8. पिता के जाने के बाद मां को देखकर ही आंसू रोक लेने होते हैं ...माँ का भीगा प्यार पिता को कभी भुलाने नहीं देता ...
    मन को छू गयी ये कविता पिता की याद दिलाती ...!!

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  9. नए अर्थ गढ़ती कविता है यह... उम्र के साथ माँ को देखने की दृष्टि भी बदल जाती है... जहाँ तीसरी क्लास में लिखते है - माँ भोली होती है, प्यारी होती है, खाना बनती है.... वोही आठवी में - माँ ममता की मूरत होती है, स्नेह्दयिनी होती है, त्याग करने वाली होती है... फिर पी. एच. डी. करने पर यह रंग भी फबने लगते हैं...

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  10. शाहिद जी
    आपने इन शब्दों -
    'छांव घनेरे पेड सी देकर, धूप दुखों की सहती मां.
    एक समन्दर ममता का है, फिर भी कितनी प्यासी मां'
    -में बड़ी बात कह दी .विरोधाभास औरत के साथ रहता ही है .

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  11. मार्मिक ...... आँखों को नम कर गयी आपकी रचना .... हर शब्द जैसे दिल को चीर कर लिखा हुवा ....

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  12. दिल को छू गई आपकी रचना , माता - पिता में तकरार होता रहता है लेकिन प्यार बहुत होता है ।

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  13. क्या लिखूं समझ नहीं आ रहा. गला भर आया और ऑंखें नम. फिर वही बात मार्मिक और दिल को छूने वाली कविता है.
    एक बात आपकी पहले वाली कविता ' सुलोचना रांगेय राघव के लिए' पर लिखना चाह रहा था किन्तु संकोच वश लिख नहीं पाया परन्तु रहा भी नहीं गया सो पूछना चाहता हूँ की क्या आपने उनके माद्यम से अपने दिल की बात  तो नहीं कही. 

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  14. जब से आप गए हो / पिताजी
    बैठी रहती है आपकी तस्वीर के आगे
    बिना कुछ खाए पिए
    काट देती है सारा दिन ।

    -चुनती है जितना उतना ही रोती
    गमों के सागर से यादों के मोती
    न जागी न सोती
    रात भर
    भींगती रहती है माँ।
    -आपकी कविता ने माँ की याद ताजा कर दी।

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  15. अशोक जी ,
    मुझे लगता है कि कोई भी रचना निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है .कहने वाले का 'निज' उस से पूरी तरह से अलग तो नहीं ही हो सकता . ख़ासकर कविता में . लिखने वाले के अपने सपने , जीवन के संघर्ष , भाव , अनुभूतियाँ , इच्छाएँ , प्रेम दूसरे के साथ मिल जाते हैं . जैसे दो नदियों का पानी . फिर आप उसे अलग नहीं कर सकते .

    मैं सचमुच नहीं बता सकती कि मैं यहाँ हूँ या नहीं . क्योंकि वह कविता तो सुलोचना जी के लिए ही लिखी थी . उनसे मिलने के बाद .

    मुझे किसी बड़े लेखक के कहे शब्द कुछ कुछ याद आ रहे हैं कि- लेखक यथार्थ के साथ ही अपनी रचनाओं में एक ऐसा परिवेश भी रचता है जिसमें उसकी उन आकांक्षाओं और सपनों के लिए भी जगह होती है जो सच नहीं हो पाए -. सो कैसे कहूँ कि मैं हूँ ही नहीं . और कैसे कहूँ कि मैं हूँ .

    आखिर में यही कि- ' कविता को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि वह किसी सच का बयान नहीं करती है '. यह सुकरात ( शायद )का कहना है .

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  16. इस भावुक कर देने वाली रचना की मार्मिकता महसूस ही की जा सकती है.
    एक अच्छी कविता पढ़कर मन प्रसन्न हुआ

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  17. Bhavpurn aur sundar abhivyakti.Shubkamnayen.

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  18. बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! दिल को छू गई आपकी ये रचना! माँ पिताजी में अटूट प्यार होता है चाहे दोनों के बीच तकरार क्यूँ न हो!

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  19. पहले किशोर जी के ब्लौग पर लगी कविता ने मेरा ध्यान खींचा और फिर आज संजय व्यास जी के पोस्ट पर आपकी टिप्पणी ने रही-सही कसर पूरी कर दी तो मैं चला आया पढ़ने आपको।

    ...और जब कुछेक कवितायें पढ़ ली तो लगा कि अब तक न पढ़कर खुद अपना ही नुकसान कर रहा था मैं तो। मार्क कर लिया है अब से भविष्य के लिये!

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  20. गौतम
    आपका स्वागत है . मेरी रचनाओं ने आप जैसे सहृदय का ध्यान अपनी ओर खींचा . जानकर अच्छा लगा .

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  21. बहुत ही भावपूर्ण रचना पिता के जाने के बाद माँ की मन:स्थिति का इससे अच्छा वर्णन हो ही नही सकता । खास कर ये लाइने तो
    पोते को हँसता बोलता देखकर
    कभी कभी रोते हुए माँ
    कहती है धीरे से -
    ' तेरे पिता हंस रहे हैं '

    पर आप पहले की तरह
    सिर्फ माँ के लिए
    कब हंसोगे पिताजी
    रुला गईं ।

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  22. पर आप पहले की तरह
    सिर्फ माँ के लिए
    कब हंसोगे पिताजी
    bahut hi marmsparshi rachana.
    Man mein halchal kar gayee...

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  23. सचमुच मां के भीतर जीवित पिता ही घर को प्रवाहमान रखते है। बहुत भावुक करने वाली कविता ।
    आपको पत्रिकाओं में अक्सर पढती हूं। अब हमेशा ही पढूंगी।

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  24. माँ की आँखों से
    हंसी ख़ुशी उदासी की
    जो त्रिवेणी बहती है
    कभी पलट कर देखो तो सही / पिताजी

    आदणीय पद्मजा जी।
    नमस्कार!
    मानो किसी कलाकार ने समन्दर को तरास दिया हो, पथ्थर को तो तरासते देखा था मैंने पर आपने समन्दर को अपने शब्दों में गढ़ दिया है। "हंसी ख़ुशी उदासी की - जो त्रिवेणी बहती है" सुन्दर अति सुन्दर। जल्द ही आपका kavimanch.in पर स्वागत करूँगा। शम्भु चौधरी

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  25. behad bhavbhini rachna.man ko choonewali.

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  26. बहुत सुंदर कविता हैं ।

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