अन्य ब्लॉग

Thursday 10 December 2009

कविता

सुनसान इलाके और लड़कियां


लड़कियां
हमेशा चलती हैं
बच कर भीड़ से

कतराती हैं लम्बे रास्तों से
अंधेरों से घबरातीं
उजालों से जाती हैं सहम
लड़कियां

सुनसान इलाकों की कल्पना तक से
सिहर जातीं
एकांत में पत्तों की सरसराहट तक से
जाती हैं चौंक
लड़कियां

राह चलते रुक जाती हैं
किसी अजाने भय से
मोड़ पर मुड़ने से पहले ठिठकती हैं
लड़कियां

डरते हुए करती हैं पार
सड़क

घर में घुसने के बाद भी
क्या चैन की साँस ले पाती हैं
लड़कियाँ

Friday 4 December 2009

कविता

पिता की मृत्यु  के बाद

माँ बहुत रोती है पिताजी
बेटा  दफ्तर जाते समय
न मिले तो / आंसू
पोता न सुने कहानी
घर में हो ब्याह
या जाया हो नाती
हर मौके बस रोती / माँ

आप जानते हो पिताजी
आपके खाने से पहले
खाती नहीं थी माँ

जब तक आपसे  नहीं कर लेती थी तकरार
कहाँ शुरू होता था उसका दिन
आपका भी कहाँ लगता था मन
जब हो जाती थी नाराज
कितना मनाते थे आप

सुनाकर माँ को / मुझसे कहते थे-
' तेरी माँ का स्वभाव फूल सरीखा है
जो दूसरों को बांटकर सुगंध
बिख़र जाता है ख़ुद '

तब माँ फेर लेती थी पीढ़ा
और आँखों की कौर से
पौछती थी गीलापन

जब से आप गए हो / पिताजी
बैठी रहती है आपकी तस्वीर के आगे
बिना कुछ खाए पिए
काट देती  है सारा  दिन

माँ की आँखों से
हंसी ख़ुशी उदासी की
जो त्रिवेणी बहती है
कभी पलट कर देखो तो सही / पिताजी

पोते को हँसता बोलता देखकर
कभी कभी रोते हुए माँ
कहती है  धीरे से -
' तेरे पिता हंस रहे हैं '

पर आप पहले की तरह
सिर्फ माँ के लिए
कब हंसोगे पिताजी
          *        

Saturday 28 November 2009

कविता

सुलोचना रांगेय  राघव के लिए

आपके भीतर
ढलती उम्र में
पिछली एक उम्र ठहरी है
जहाँ नटखट प्रेमिल युवती
ख़ामोश बैठी है
अपने सम्पूर्ण समर्पण / शोखियों के साथ

अवसर मिलते ही
हिरणी सी कुलांचे भरती
गुलाबों सी खिलती
ताज़ा हवा सी बहती
एक रस / एक तान ज़िंदगी में
कई रंग भरती

शाम सी उतरती धरती पर
रात सी मिलती गले
भोर सी लेती अंगड़ाई
किरणों सी बिखरती
चांदनी सी झरती
पत्तों सी सरसराती
शिशु सी कुनमुनाती
और औचक ही लजा जाती 

सहज , सरल ,सीधी , निश्छल
नदी सी बहने को
बहुत कुछ कहने को उतावली सी

जाने कैसे तो उड़ती है आकाश में / बहुत ऊँचे
और बुनती  है सपनों के इन्द्रधनुष

सुगंध सी घुलकर हवा में
लौट आती है चुपचाप
धरती पर लड़की
         -.-       

Monday 23 November 2009

कविता

एडिनबरा  में ' माल्या'

माल्या
अपनी माँ से पूछता है सवाल
और वह दे नहीं पाती जवाब

एडिनबरा के एक घर में
माल्या को सिखाती है हिंदी
पर बोलनें में वह करता है आनाकानी
पूछता है सवाल ही सवाल

मेरी भाषा और बच्चों से अलग क्यों है
मैं सीख रहा हूँ हिंदी
तो ये क्यों नहीं
क्या ये  मेरे भाई बहन नहीं
ये नहीं तो फिर कौन हैं
कहाँ हैं 'ग्रांड पा' / 'ग्रांड माँ'

यह इनका है तो मेरा देश कहाँ है / कौन सा है

वह रहना चाहता है वहां
जहाँ सब उसके जैसे दिखते हों
उसकी भाषा बोलते / समझते हों
उसके जैसा खाते पीते हों
घर के बाहर मिटटी में खेलते / लड़ते झगड़ते हों

हद तो तब हुई जब एक दिन
रुआंसा हो कहने लगा माल्या
ममा, इण्डिया चलो
चलेंगे बेटा / अगले बरस
नहीं / अभी का अभी चलो

'बात क्या है बेटा'
'ममा' सीने से लगाकर पूछती है
ममा यहाँ की 'डक'
अंग्रेजी समझती है / हिंदी नहीं
वह यहाँ वाले बच्चों से बात करती है / मुझ से नहीं

माल्या को इण्डिया आना है
जहाँ कम से कम 'डक' तो उसे समझे

माल्या का बालमन घुट रहा है
भीतर धुंवा सा उठ रहा है

ऐसे कई माल्या  हैं
जो पूछ  रहे हैं सवाल
पर मिलते नहीं जवाब
           *

 

Sunday 15 November 2009

कविता

     मेरे लौटने के बाद

वह औंधी मैगजीन को सीधा
खुली किताब को बंद
और बंद को ठूँसता है शेल्फ में

कागज /कलम निकाल
जलाता बुझाता लैंप
करता है लिखने का प्रयास
पर कर कुछ नहीं पाता

मेज पर फडफडाते लिखे/अनलिखे पन्नों को
दबोचता है मुठी में और
बनाकर गेंद फेंक देता है
चिडियों के बीच
वे उड़ जाती हैं चोंक कर
रह जाता है चहबच्चों में भरा पानी

ध्यान हटाने के लिए पीता है चाय
'अच्छी बनी है '

सोचता है इत्मिनान से
क्या वह भी याद करती होगी मुझे
मेरी तरह

क्या कर रही होगी अभी इस समय
हंस रही होगी किसी बात पर
या बतिया रही होगी किसी से
कहाँ होगी उसे फुर्सत मेरे लिए
चाय हो जाती है फीकी

प्रेम गीत की
अंतिम पंक्ति लिखने से पहले
चीखना चाहता है वह जोर से
मुझे 'वही' चाहिए
अभी इसी पल ताकि

उसे दिखा सकूँ
पेड़ों की पसरती छायाएं
सूरज के गोले का
उतरना पहाडी के पार
आकाश में सितारों का जमघट
शाम की जादुई हवा

पर चीखते चीखते
आवाज रह जाती है घुटकर कंठ में

मेरे आने के बाद
मेरी याद में
याद आते हैं उसे
मेरे द्वारा फेंके
लाल चूड़ी के टुकड़े
जिन्हें चुनकर
नाता है फिर से गोल और
मेरी कमीज से उतरे बाल को
दबाता है चूड़ी के टुकड़े तले

मेरे न होने पर
मेरे  होने  को साबित करने की जिद में
खींचकर मेरी तस्वीर
कर डालता है टुकड़े -टुकड़े
और फिर से जोड़कर
देता है एक नई विधा को जन्म

होता है खुश
खोई गेंद मिलने पर बच्चे की तरह

कई बार उसे मेरी याद आती है तब जब
मैं बैठी होती हूँ ठीक उसके सामने

उसकी आँखें जादू की तलवार सी
काटती रहती हैं मुझे
पर मेरी आस्था है फिर भी जादू में
उसका जादू नहीं होता कभी फेल

यह अलग बात है कि
कटकर मैं
बच जाती हूँ हर बार साबुत
पहले की तरह

कितनी अच्छी है यह धरती
वह जीना चाहता है
बरसों तक इस धरती पर
और मैं उसके साथ
जन्मों तक .