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Thursday 29 October 2009

कविता

मन
आँखें हैं
देख रहे हो

हाथ हैं
छू रहे हो

पांव हैं
चल रहे हो

मन है
मिल क्यों नहीं रहे ?

Wednesday 28 October 2009

क्षणिकाएं.

 सदी के पार

आसमान छूने के हौंसले
सदी के पार जाने की  कल्पनाएँ
साथ लाते  हो
कभी छोड़ कर भी तो जाओ .


  याद में

जब थी प्यार में
रोई कि
तुम भूल गए तो ?

जब भूल गए
तो रोई
तुम्हारी याद में .

कविता

 सुन्दर दुनिया

पत्थर जोड़कर
बनाई इमारत
इतनी सुन्दर
देखो तो लगे
बोलती सी
इंसानों को जोड़कर
सुन्दर दुनिया
क्यों नहीं बनाता कोई .

Thursday 22 October 2009

कविता

 नदी 
बीहड़ जंगलों में 
फैलती  है ज्यादा 
बस्तियों में जाती सिमट 
कितनी निडर 
कितनी लाजवंती / नदी 

प्रेम में 
देती जीवन
 और क्रोध में 
लील लेती है जीवन  / नदी

सूख सकती है 
पानी की कमी से
बदल सकती है राहें
पर
 मर नहीं सकती 
कठिन से कठिन समय में भी  / नदी

ढल जाती है 
हर हाल में 
मिलना हो समंदर से
दौड़ती है सरपट 
बनकर भाप 
उड़ जाती है आकाश से मिलने / नदी 

नदी का स्वभाव 
छिपा नहीं किसी से 
लेकिन आज तक 
कोई नहीं जान सका 
कि जब
 दिन में खिलखिलाती है तो 
रात  में क्यों रोती  है / नदी  

कविता

प्यादल
सीधी चली
बोले-- बनती है
टेढी  चली
बोले --प्यादल है
रुकी
बोले  --हार गयी
झुकी 
बोले --रीढ़  नहीं है 
बैठी
बोले --हिम्मत टूट गयी
उठी
बोले --पर निकल आये
बोली
बोले --जुबान कतरनी है
चुप हुयी
बोले --घुन्नी है
मैं मरी
वे तब चुप हुए