आशीष
वह ईमानदार और काबिल चिकित्सक था . पिता चपरासी थे . आर्थिक तंगी के बावजूद उसने अपने बहन भाइयों के ठीक ठाक से विवाह किये . माल प्रैक्टिस में उसका विश्वास नहीं था . शायद इसी से अब तक रहने के लिए घर सरीखा घर भी नहीं बनवा पाया था .
परेशान वह कभी ज्योतिषी को अपनी जन्म पत्री दिखाता . कभी मंदिर में तेल चढाता तो कभी घी . वास्तुकार के निर्देशानुसार कभी चेंबर बदलता तो कभी उसमें बैठने कि दिशा .पर बात नहीं बनी .
किसी सुबह एक ग्रामीण वृद्ध मरीज आया .उसनें जांचा . पर्ची पर दवाइयाँ लिख दीं .
दोपहर को चिकित्सक की पत्नी बेटे को विद्यालय से लाने के लिए घर से निकली . देखा वह ग्रामीण सिर झुकाए पेड़ तले बैठा है . उसे आश्चर्य हुआ . बड़े आदर से उसने पूछा --
' बाबा यहाँ क्यों बैठे हो ? '
' बस का किराया चुकाकर दो सौ रूपये बचे थे . सौ रूपये साहब की फीस के दे दिए . दवाई के लिए पैसे पूरे नहीं हैं . गांव चला गया तो , दवा के लिए लौट नहीं पाउँगा . बस भाडा लगेगा . काम खोटी होगा . क्या करूँ , यही सोच रहा हूँ . '
वृद्ध के बोलों में चिंता और गरीबी का कम्पन्न साफ सुनाई दे रहा था .
चिकित्सक कि पत्नी तत्काल भीतर गई . कुछ रूपये लाई . वृद्ध को दिए . रुपये देखकर उसकी आँखों से अविरल आंसू बहने लगे .उसने हज्जारों आशीषें दीं और चला गया .
थोड़े दिनों में ही चिकित्सक के पास मरीजों की भीड़ पड़ने लगी . चिकित्सक को हैरत हो रही थी कि अचानक यह भीड़ . पत्नी ने पति को वृद्ध वाला किस्सा सुनाया . वह सब समझ गया .
चिकित्सक नें प्रण किया कि वह मरीजों से पैसे कम , आशीषें ज्यादा लेगा .
तब से उसका काम और नाम दिन दूनीं रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा .
Monday, 2 November 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
पदमजा शर्मा साहिबा,
ReplyDeleteआपके ब्लाग को देखने का संयोग हुआ.
मानवीय नज़रिये की खूबसूरत अक्काशी ज़ेहन में चिन्तन को आमंत्रित करती है.
बधाई स्वीकार करें.
यूंही लिखती रहें
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
निश्चित ही दुआओं का फल दूर तक जाता है.
ReplyDeleteदुआओं का असर ऐसा ही होता है ....
ReplyDeleteकाश इसे सभी समझ सके ...!!
AWESOME, नुस्खे सब बेकार गए और पवित्र ह्रदय का एक उपकार फलदायी हुआ. हमारी संवेदनाएं अब छोटे छोटे बीट्स में मापी जा सकने जितनी हो गयी हैं . लघु कथा में पूर्ण कथा का प्रभाव है. बधाई !
ReplyDeleteयह दूआएं एकत्र करने का नजारा मैं रोज ही अपने घर देखती हूँ। हमारे यहाँ तो मरीज पहले दवा लाता है और फिर पैसे बचते हैं तो फीस देता है। कभी-कभी बस का किराया भी मांग कर ले जाता है। डॉक्टरी पेशे में ऐसे ही चलना चाहिए, नहीं तो डाकू ही बन जाते। बढिया कथानक, बधाई।
ReplyDeleteबहुत खुब.. वाकई दुआओं का जादुई असर होता है..
ReplyDeletekya ye saachi kahani hai ....
ReplyDeletekya koi bhi kahani ya kavita sach hi nahin hoti ?
ReplyDelete"कर भला तो हो भला"
ReplyDeleteइसी तर्ज़ को समझाती हुई ये
पावन नेक रचना
अभिवादन स्वीकारें
aaj hee aapake blog ka pata chala aapakee visit dwara .Yanhaa aaker accha laga .aapakee kshanikae sabhee ek se bad kar ek . Badhai .
ReplyDelete