सुलोचना रांगेय राघव के लिए
आपके भीतर
ढलती उम्र में
पिछली एक उम्र ठहरी है
जहाँ नटखट प्रेमिल युवती
ख़ामोश बैठी है
अपने सम्पूर्ण समर्पण / शोखियों के साथ
अवसर मिलते ही
हिरणी सी कुलांचे भरती
गुलाबों सी खिलती
ताज़ा हवा सी बहती
एक रस / एक तान ज़िंदगी में
कई रंग भरती
शाम सी उतरती धरती पर
रात सी मिलती गले
भोर सी लेती अंगड़ाई
किरणों सी बिखरती
चांदनी सी झरती
पत्तों सी सरसराती
शिशु सी कुनमुनाती
और औचक ही लजा जाती
सहज , सरल ,सीधी , निश्छल
नदी सी बहने को
बहुत कुछ कहने को उतावली सी
जाने कैसे तो उड़ती है आकाश में / बहुत ऊँचे
और बुनती है सपनों के इन्द्रधनुष
सुगंध सी घुलकर हवा में
लौट आती है चुपचाप
धरती पर लड़की
-.-
Saturday, 28 November 2009
Monday, 23 November 2009
कविता
एडिनबरा में ' माल्या'
माल्या
अपनी माँ से पूछता है सवाल
और वह दे नहीं पाती जवाब
एडिनबरा के एक घर में
माल्या को सिखाती है हिंदी
पर बोलनें में वह करता है आनाकानी
पूछता है सवाल ही सवाल
मेरी भाषा और बच्चों से अलग क्यों है
मैं सीख रहा हूँ हिंदी
तो ये क्यों नहीं
क्या ये मेरे भाई बहन नहीं
ये नहीं तो फिर कौन हैं
कहाँ हैं 'ग्रांड पा' / 'ग्रांड माँ'
यह इनका है तो मेरा देश कहाँ है / कौन सा है
वह रहना चाहता है वहां
जहाँ सब उसके जैसे दिखते हों
उसकी भाषा बोलते / समझते हों
उसके जैसा खाते पीते हों
घर के बाहर मिटटी में खेलते / लड़ते झगड़ते हों
हद तो तब हुई जब एक दिन
रुआंसा हो कहने लगा माल्या
ममा, इण्डिया चलो
चलेंगे बेटा / अगले बरस
नहीं / अभी का अभी चलो
'बात क्या है बेटा'
'ममा' सीने से लगाकर पूछती है
ममा यहाँ की 'डक'
अंग्रेजी समझती है / हिंदी नहीं
वह यहाँ वाले बच्चों से बात करती है / मुझ से नहीं
माल्या को इण्डिया आना है
जहाँ कम से कम 'डक' तो उसे समझे
माल्या का बालमन घुट रहा है
भीतर धुंवा सा उठ रहा है
ऐसे कई माल्या हैं
जो पूछ रहे हैं सवाल
पर मिलते नहीं जवाब
*
माल्या
अपनी माँ से पूछता है सवाल
और वह दे नहीं पाती जवाब
एडिनबरा के एक घर में
माल्या को सिखाती है हिंदी
पर बोलनें में वह करता है आनाकानी
पूछता है सवाल ही सवाल
मेरी भाषा और बच्चों से अलग क्यों है
मैं सीख रहा हूँ हिंदी
तो ये क्यों नहीं
क्या ये मेरे भाई बहन नहीं
ये नहीं तो फिर कौन हैं
कहाँ हैं 'ग्रांड पा' / 'ग्रांड माँ'
यह इनका है तो मेरा देश कहाँ है / कौन सा है
वह रहना चाहता है वहां
जहाँ सब उसके जैसे दिखते हों
उसकी भाषा बोलते / समझते हों
उसके जैसा खाते पीते हों
घर के बाहर मिटटी में खेलते / लड़ते झगड़ते हों
हद तो तब हुई जब एक दिन
रुआंसा हो कहने लगा माल्या
ममा, इण्डिया चलो
चलेंगे बेटा / अगले बरस
नहीं / अभी का अभी चलो
'बात क्या है बेटा'
'ममा' सीने से लगाकर पूछती है
ममा यहाँ की 'डक'
अंग्रेजी समझती है / हिंदी नहीं
वह यहाँ वाले बच्चों से बात करती है / मुझ से नहीं
माल्या को इण्डिया आना है
जहाँ कम से कम 'डक' तो उसे समझे
माल्या का बालमन घुट रहा है
भीतर धुंवा सा उठ रहा है
ऐसे कई माल्या हैं
जो पूछ रहे हैं सवाल
पर मिलते नहीं जवाब
*
Sunday, 15 November 2009
कविता
मेरे लौटने के बाद
वह औंधी मैगजीन को सीधा
खुली किताब को बंद
और बंद को ठूँसता है शेल्फ में
कागज /कलम निकाल
जलाता बुझाता लैंप
करता है लिखने का प्रयास
पर कर कुछ नहीं पाता
मेज पर फडफडाते लिखे/अनलिखे पन्नों को
दबोचता है मुठी में और
बनाकर गेंद फेंक देता है
चिडियों के बीच
वे उड़ जाती हैं चोंक कर
रह जाता है चहबच्चों में भरा पानी
ध्यान हटाने के लिए पीता है चाय
'अच्छी बनी है '
सोचता है इत्मिनान से
क्या वह भी याद करती होगी मुझे
मेरी तरह
क्या कर रही होगी अभी इस समय
हंस रही होगी किसी बात पर
या बतिया रही होगी किसी से
कहाँ होगी उसे फुर्सत मेरे लिए
चाय हो जाती है फीकी
प्रेम गीत की
अंतिम पंक्ति लिखने से पहले
चीखना चाहता है वह जोर से
मुझे 'वही' चाहिए
अभी इसी पल ताकि
उसे दिखा सकूँ
पेड़ों की पसरती छायाएं
सूरज के गोले का
उतरना पहाडी के पार
आकाश में सितारों का जमघट
शाम की जादुई हवा
पर चीखते चीखते
आवाज रह जाती है घुटकर कंठ में
मेरे आने के बाद
मेरी याद में
याद आते हैं उसे
मेरे द्वारा फेंके
लाल चूड़ी के टुकड़े
जिन्हें चुनकर
बनाता है फिर से गोल और
मेरी कमीज से उतरे बाल को
दबाता है चूड़ी के टुकड़े तले
मेरे न होने पर
मेरे होने को साबित करने की जिद में
खींचकर मेरी तस्वीर
कर डालता है टुकड़े -टुकड़े
और फिर से जोड़कर
देता है एक नई विधा को जन्म
होता है खुश
खोई गेंद मिलने पर बच्चे की तरह
कई बार उसे मेरी याद आती है तब जब
मैं बैठी होती हूँ ठीक उसके सामने
उसकी आँखें जादू की तलवार सी
काटती रहती हैं मुझे
पर मेरी आस्था है फिर भी जादू में
उसका जादू नहीं होता कभी फेल
यह अलग बात है कि
कटकर मैं
बच जाती हूँ हर बार साबुत
पहले की तरह
कितनी अच्छी है यह धरती
वह जीना चाहता है
बरसों तक इस धरती पर
और मैं उसके साथ
जन्मों तक .
वह औंधी मैगजीन को सीधा
खुली किताब को बंद
और बंद को ठूँसता है शेल्फ में
कागज /कलम निकाल
जलाता बुझाता लैंप
करता है लिखने का प्रयास
पर कर कुछ नहीं पाता
मेज पर फडफडाते लिखे/अनलिखे पन्नों को
दबोचता है मुठी में और
बनाकर गेंद फेंक देता है
चिडियों के बीच
वे उड़ जाती हैं चोंक कर
रह जाता है चहबच्चों में भरा पानी
ध्यान हटाने के लिए पीता है चाय
'अच्छी बनी है '
सोचता है इत्मिनान से
क्या वह भी याद करती होगी मुझे
मेरी तरह
क्या कर रही होगी अभी इस समय
हंस रही होगी किसी बात पर
या बतिया रही होगी किसी से
कहाँ होगी उसे फुर्सत मेरे लिए
चाय हो जाती है फीकी
प्रेम गीत की
अंतिम पंक्ति लिखने से पहले
चीखना चाहता है वह जोर से
मुझे 'वही' चाहिए
अभी इसी पल ताकि
उसे दिखा सकूँ
पेड़ों की पसरती छायाएं
सूरज के गोले का
उतरना पहाडी के पार
आकाश में सितारों का जमघट
शाम की जादुई हवा
पर चीखते चीखते
आवाज रह जाती है घुटकर कंठ में
मेरे आने के बाद
मेरी याद में
याद आते हैं उसे
मेरे द्वारा फेंके
लाल चूड़ी के टुकड़े
जिन्हें चुनकर
बनाता है फिर से गोल और
मेरी कमीज से उतरे बाल को
दबाता है चूड़ी के टुकड़े तले
मेरे न होने पर
मेरे होने को साबित करने की जिद में
खींचकर मेरी तस्वीर
कर डालता है टुकड़े -टुकड़े
और फिर से जोड़कर
देता है एक नई विधा को जन्म
होता है खुश
खोई गेंद मिलने पर बच्चे की तरह
कई बार उसे मेरी याद आती है तब जब
मैं बैठी होती हूँ ठीक उसके सामने
उसकी आँखें जादू की तलवार सी
काटती रहती हैं मुझे
पर मेरी आस्था है फिर भी जादू में
उसका जादू नहीं होता कभी फेल
यह अलग बात है कि
कटकर मैं
बच जाती हूँ हर बार साबुत
पहले की तरह
कितनी अच्छी है यह धरती
वह जीना चाहता है
बरसों तक इस धरती पर
और मैं उसके साथ
जन्मों तक .
Thursday, 5 November 2009
क्षणिकाएं
अधर में लड़कियाँ
उड़ा रही हैं हवाई जहाज
छू लिया है आसमान
चाँद पर भी पहुँच रही हैं
लड़कियाँ
मगर धरती पर
कहाँ टिका पा रही हैं
पाँव
लड़कियाँ .
लड़की का कद
बड़ी होती लड़की
नापती है अपना कद
माँ के कद से
ऊँची होकर हर बार
बजाती है तालियाँ
ख़ुशी में
बढ़ती लड़की नहीं जानती कि
माँ
उसकी उम्र में थीं उस से लम्बी
जैसे जैसे बढ़ती गई उनकी आयु
घटती गई
ऊंचाई .
प्रेम
लड़कियाँ कर रही हैं प्रेम
लिख रही हैं प्रेम पत्र
उनकी किताबों से झड़ रही हैं
गुलाब की पंखुडियाँ
वे झांक रही हैं खिड़कियों से
लड़कों की दुनिया में
क्या
वहां बचा है अब भी
प्रेम .
उड़ा रही हैं हवाई जहाज
छू लिया है आसमान
चाँद पर भी पहुँच रही हैं
लड़कियाँ
मगर धरती पर
कहाँ टिका पा रही हैं
पाँव
लड़कियाँ .
लड़की का कद
बड़ी होती लड़की
नापती है अपना कद
माँ के कद से
ऊँची होकर हर बार
बजाती है तालियाँ
ख़ुशी में
बढ़ती लड़की नहीं जानती कि
माँ
उसकी उम्र में थीं उस से लम्बी
जैसे जैसे बढ़ती गई उनकी आयु
घटती गई
ऊंचाई .
प्रेम
लड़कियाँ कर रही हैं प्रेम
लिख रही हैं प्रेम पत्र
उनकी किताबों से झड़ रही हैं
गुलाब की पंखुडियाँ
वे झांक रही हैं खिड़कियों से
लड़कों की दुनिया में
क्या
वहां बचा है अब भी
प्रेम .
Monday, 2 November 2009
लघु कथा
आशीष
वह ईमानदार और काबिल चिकित्सक था . पिता चपरासी थे . आर्थिक तंगी के बावजूद उसने अपने बहन भाइयों के ठीक ठाक से विवाह किये . माल प्रैक्टिस में उसका विश्वास नहीं था . शायद इसी से अब तक रहने के लिए घर सरीखा घर भी नहीं बनवा पाया था .
परेशान वह कभी ज्योतिषी को अपनी जन्म पत्री दिखाता . कभी मंदिर में तेल चढाता तो कभी घी . वास्तुकार के निर्देशानुसार कभी चेंबर बदलता तो कभी उसमें बैठने कि दिशा .पर बात नहीं बनी .
किसी सुबह एक ग्रामीण वृद्ध मरीज आया .उसनें जांचा . पर्ची पर दवाइयाँ लिख दीं .
दोपहर को चिकित्सक की पत्नी बेटे को विद्यालय से लाने के लिए घर से निकली . देखा वह ग्रामीण सिर झुकाए पेड़ तले बैठा है . उसे आश्चर्य हुआ . बड़े आदर से उसने पूछा --
' बाबा यहाँ क्यों बैठे हो ? '
' बस का किराया चुकाकर दो सौ रूपये बचे थे . सौ रूपये साहब की फीस के दे दिए . दवाई के लिए पैसे पूरे नहीं हैं . गांव चला गया तो , दवा के लिए लौट नहीं पाउँगा . बस भाडा लगेगा . काम खोटी होगा . क्या करूँ , यही सोच रहा हूँ . '
वृद्ध के बोलों में चिंता और गरीबी का कम्पन्न साफ सुनाई दे रहा था .
चिकित्सक कि पत्नी तत्काल भीतर गई . कुछ रूपये लाई . वृद्ध को दिए . रुपये देखकर उसकी आँखों से अविरल आंसू बहने लगे .उसने हज्जारों आशीषें दीं और चला गया .
थोड़े दिनों में ही चिकित्सक के पास मरीजों की भीड़ पड़ने लगी . चिकित्सक को हैरत हो रही थी कि अचानक यह भीड़ . पत्नी ने पति को वृद्ध वाला किस्सा सुनाया . वह सब समझ गया .
चिकित्सक नें प्रण किया कि वह मरीजों से पैसे कम , आशीषें ज्यादा लेगा .
तब से उसका काम और नाम दिन दूनीं रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा .
वह ईमानदार और काबिल चिकित्सक था . पिता चपरासी थे . आर्थिक तंगी के बावजूद उसने अपने बहन भाइयों के ठीक ठाक से विवाह किये . माल प्रैक्टिस में उसका विश्वास नहीं था . शायद इसी से अब तक रहने के लिए घर सरीखा घर भी नहीं बनवा पाया था .
परेशान वह कभी ज्योतिषी को अपनी जन्म पत्री दिखाता . कभी मंदिर में तेल चढाता तो कभी घी . वास्तुकार के निर्देशानुसार कभी चेंबर बदलता तो कभी उसमें बैठने कि दिशा .पर बात नहीं बनी .
किसी सुबह एक ग्रामीण वृद्ध मरीज आया .उसनें जांचा . पर्ची पर दवाइयाँ लिख दीं .
दोपहर को चिकित्सक की पत्नी बेटे को विद्यालय से लाने के लिए घर से निकली . देखा वह ग्रामीण सिर झुकाए पेड़ तले बैठा है . उसे आश्चर्य हुआ . बड़े आदर से उसने पूछा --
' बाबा यहाँ क्यों बैठे हो ? '
' बस का किराया चुकाकर दो सौ रूपये बचे थे . सौ रूपये साहब की फीस के दे दिए . दवाई के लिए पैसे पूरे नहीं हैं . गांव चला गया तो , दवा के लिए लौट नहीं पाउँगा . बस भाडा लगेगा . काम खोटी होगा . क्या करूँ , यही सोच रहा हूँ . '
वृद्ध के बोलों में चिंता और गरीबी का कम्पन्न साफ सुनाई दे रहा था .
चिकित्सक कि पत्नी तत्काल भीतर गई . कुछ रूपये लाई . वृद्ध को दिए . रुपये देखकर उसकी आँखों से अविरल आंसू बहने लगे .उसने हज्जारों आशीषें दीं और चला गया .
थोड़े दिनों में ही चिकित्सक के पास मरीजों की भीड़ पड़ने लगी . चिकित्सक को हैरत हो रही थी कि अचानक यह भीड़ . पत्नी ने पति को वृद्ध वाला किस्सा सुनाया . वह सब समझ गया .
चिकित्सक नें प्रण किया कि वह मरीजों से पैसे कम , आशीषें ज्यादा लेगा .
तब से उसका काम और नाम दिन दूनीं रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा .
Subscribe to:
Posts (Atom)