सुन्दर दुनिया
पत्थर जोड़कर
बनाई इमारत
इतनी सुन्दर
देखो तो लगे
बोलती सी
इंसानों को जोड़कर
सुन्दर दुनिया
क्यों नहीं बनाता कोई .
Wednesday 28 October 2009
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कृतियाँ : - इस दुनिया के अगल बगल( शब्द चित्र ) ,इस जीवन के लिए (कविता संग्रह ) ,रमता जोगी बहता पानी ( शब्द चित्र ) , नासिर के तीन सपने ( शब्द चित्र ) , आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यासों का सांस्कृतिक अध्ययन (शोध) , यशस्वी पत्रकार पंडित झाबरमल्ल शर्मा (आलोचना ) , दादा के पत्र पोते के नाम (संपादन), मेरी लड़ाई लंबी है (विविध ), जीवन के कितने पाठ ( संपादन ) |
"जो पूजाएँ अधूरी रहीं
जो व्यर्थ न गयीं
जो फूल खिलने
से पहले मुरझा गये
और नदियाँ रेगिस्तानों में खो गयींवे भी नष्ट न हुईं
जो कुछ पीछे रह गया जीवन में
जानता हूँ
निष्फल न होगा / जो मैं गा न सका
बजा न सका /हे प्रकृति
वह तुम्हारे साज पर बजता रहेगा ".
--रवींद्रनाथ टैगोर
भगवान ने तो सुंदर दुनिया ही बनायी थी लेकिन हमी ने इसे बदसूरत बना दिया है। अच्छी कविता। बधाई। वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें।
ReplyDeleteसबसे पहले तो ब्लोगवाणी से जुड़ने पर बधाई ,अब
ReplyDeleteआपके अच्छी रचनाये हमें दिखती रहेंगी , इस रचना
की तरह
इंसानों को जोड़कर
ReplyDeleteसुन्दर दुनिया
क्यों नहीं बनाता कोई . ये सवाल खुद से पूछ्ना पडॆगा.
शायद इसी सवाल का जवाब कतील साहब ने अपनी इस नज़्म में दिया है
ReplyDeleteइक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है
बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है