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Wednesday 26 August 2009

कविता

मित्रों , अपने ब्लॉग की शुरुआत एक कविता से कर रही हूँ ।
शीर्षक है" देना "
देना
जैसे पेड़ देते हँ फल
नदियाँ देती हँ जल
फूल देते हँ सुगंध
वैसे ही मैं देती हूँ
ख़ुद को
तुम्हें
इसलिए नहीं कि
मैं तुम से प्रेम करती हूँ
इसलिए भी नहीं कि
तुम मुझे चाहते हो
बल्कि इसलिए कि
तुम भी यह जान सको कि
बिना किसी चाहना के
देना ही
असल में देना है

5 comments:

  1. थोड़े से शब्दों में बड़ी बात. मगर इस भाव को समझना भी उतना सरल नहीं है जितना किसी उदात्तमना को लगता है.

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  2. dena ke bhi prakar do
    do khusi se
    ya gum se do
    apna kho ke
    kisi ko kucch dene ko hi to
    dena kahete hain



    nice poem mom.....

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  3. kavita to bahut achi hai aur bade dhayan se likhi hai par


    ye to thi dene ki baat
    hum to lene mein vishwas rakhte ha

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  4. किसी ने सही कहा था कि यह एक श्रेष्ठ रचना है.
    मन प्रसन्न हो गया पढ़कर

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