शीर्षक है" देना "
देना
जैसे पेड़ देते हँ फल
नदियाँ देती हँ जल
फूल देते हँ सुगंध
वैसे ही मैं देती हूँ
ख़ुद को
तुम्हें
इसलिए नहीं कि
मैं तुम से प्रेम करती हूँ
इसलिए भी नहीं कि
तुम मुझे चाहते हो
बल्कि इसलिए कि
तुम भी यह जान सको कि
बिना किसी चाहना के
देना ही
असल में देना है
थोड़े से शब्दों में बड़ी बात. मगर इस भाव को समझना भी उतना सरल नहीं है जितना किसी उदात्तमना को लगता है.
ReplyDeletedena ke bhi prakar do
ReplyDeletedo khusi se
ya gum se do
apna kho ke
kisi ko kucch dene ko hi to
dena kahete hain
nice poem mom.....
kavita to bahut achi hai aur bade dhayan se likhi hai par
ReplyDeleteye to thi dene ki baat
hum to lene mein vishwas rakhte ha
बधाई
ReplyDeleteकिसी ने सही कहा था कि यह एक श्रेष्ठ रचना है.
ReplyDeleteमन प्रसन्न हो गया पढ़कर